Saturday, 23 August 2014

सत्य पर असत्य की जीत

जब प्राणों पर बन आती है
तो कहाँ हम सोचते हैं कि नीति क्या है और सही क्या ।
प्रेम और युद्ध में तो सब सही बोला गया है
अगर प्रेम बचाने को असत्य का कन्धा माँगा
तो कहाँ गलत किया ?
विवश्ता ऐसी तो लगती है मानो प्राण ही निकल जायेंगे ।
तब कितने ही विरले ये विचार करते हैं
की तर्क देने को कुतर्क का प्रयोग हुआ है ?

जो मैंने हठ किया , कूट नीति चली , थोड़ा सा छला ,
उसमें जो किसी का अपमान होता हो तो बोलो ।
अथवा किसी संग अन्याय हुआ हो ,
या मेरे प्रेम से किसी की भी शांति जाती हो ,
अधर्म फैलता हो , द्वेष आता हो तो कहो

यदि असत्य से किसी को हानि पहुंची हो
तो वह मैं स्वयं हूँ ।
कुतर्क यदि किसी को ग्लानि पहुंचाते हैं तो वो मेरा मन है
स्वप्न जो मैंने बुना वो औरो के लिए तो हमेशा से सत्य था
यदि आज औरो का सत्य मेरा वर्तमान बनता है ,
तो मेरे असत्य की जीत ही तो हुई

तब तो मैं भी अभियोग की स्थिति में नहीं
जिव्हा पर सरस्वती मेरे विराजी थी
दुःख का मुझे तिरस्कार करना चाहिए
साध्वी समान तेजोमयी होना चाहिए जो कहा वो सत्य हुआ ।

तब लगा था प्रेम के बिना जीवन अर्थहीन हो जायेगा
झूठ की सीढ़ी से ही सही , एक जगह बना लूँ
आज जगह भी मेरी है , असत्य भी मेरा
और सत्य असत्य की लड़ाई में जीत कहो या हार - वह भी मेरी । 

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